जी हां, बिल्कुल सही है। एक बार एक जापानी लेखक मसारु एमोटो ने एक प्रयोग किया। उसने एक गिलास पानी अपने सामने रख लिया और बहुत देर तक बुरा बुरा सोचने लगा। उसने पानी के अणुओं का पैटर्न नोट किया। फिर उसने बहुत देर तक अच्छा अच्छा सोचा जिससे उसने पाया कि पानी के अणुओं का पैटर्न काफी बदल गया है। इससे उसने यह सिद्ध किया कि हमारी सोच हमारे आस पास के वातावरण पे प्रभाव डालती है। अच्छा सोचेंगे तो पॉजिटिव एनर्जी का संचार होगा, नही तो इसका विपरीत।
तो मेरे यह बताने का तात्पर्य था कि वेद काल से मंदिर बनाने का एकमात्र उद्देश्य यह था कि उसकी बनावट ऐसी हो और वह ऐसी जगह पर स्थित हो जिससे वह सबसे ज्यादा सकारात्मक ऊर्जा संग्रह कर सके। मंदिर का स्थान ऐसी जगह पर हो जहां पृथ्वी का चुम्बकीय प्रभाव सबसे ज्यादा हो जिससे वह अधिक से अधिक ऊर्जा समा सके। और मंदिर में स्थित मूर्तियों को "गर्भगृह", जहां वह मंदिर में सबसे ज्यादा चुम्बकीय ऊर्जा सोख सके, रखा जाता था। इसलिए जब हम इनकी परिक्रमा करते हैं या स्पर्श करते हैं तो इस ऊर्जा का कुछ अंश हमारे अंदर आता है। ये सब मैं आपको विज्ञान सिद्ध बातें बता रहा हूँ।
मंदिरों में लगी तांबे की घंटी बजाने से अगर आप सोचते हैं कि भगवान खुश होते हैं तो ऐसा नही है। इसके पीछे भी एक विज्ञान है। तांबे की घन्टी बजाने से आस पास के वातावरण में कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। अगरबत्ती जलाने एवं फूल चढ़ाने के पीछे भी एल कारण है- यह हमें ध्यान केंद्रित करने में सहायता करतें हैं जिससे कि हमारे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो। मंदिरों में जाने वाले श्रद्धालु सकारात्मक बातें सोचते हैं जिससे वहां के वातावरण में सकारात्मकता रहती है और आपने इसका आभास भी किया होगा।
परन्तु आज कल जो चारदीवारी में मूर्तियां रख देते हैं उसका उतना प्रभाव नही होता। अगर मंदिर वैदिक तरीके से बनाया जाए और सही तरीके से तो उससे आम जन का कल्याण ही होगा। शांति और सकारात्मकता बढ़ेगी। सनातन धर्म और वेदों में लिखी एक एक बात के वैज्ञानिक कारण है जो मानवता के हित में हैं। किसी राह चलते ने नही लिखे हैं वेद। पर आज कल अन्य धर्मों के प्रचार प्रसार तेज़ी से हो रहे हैं, और भारतीय संस्कृति का नाश कररहे हैं। इन धर्मो में लिखी बातें न तो मानव हित में हैं ना ही वैज्ञानिक हैं।
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